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सोमवार, 7 दिसंबर 2020

बातूनी होतीं हैं किताबें..!

*बातूनी होतीं हैं किताबें...!*
मुखर कर देतीं है 
कभी सोचते हो ?
सोचो...! 
कैसे पढ़ना हैं ?
मैं उनको पढ़ता नहीं कभी भी 
बस बतियाता हूँ / सवाल करता हूँ 
हर सवाल का उत्तर देतीं हैं !
माँगती कुछ नहीं 
समय इसका मूल्य है 
चुका दो और बात करो इनसे
समय जो तुम 
चुगलियों निंदा फ़िज़ूल बातों 
पर खर्चते हो
इनको दे...दो ..! 
ये सब कुछ बता देंगी 
किताबें जो मौन रहकर
चीख चीख कर कहतीं हैं..
मत लड़ो टूट जाओगे 
उसके इसके इनके उनके 
आँसू पौंछते रहो..!
तुम जान लोगे 
खुद को 
पहचान लोगे ।।
चलो एक किताब 
रखलो न अपने सिरहाने ।
चिंताओं को पैताने..!!
बात करो इनसे 
ये आखिरी डाकिया नहीं 
इनका अनन्त तक साथ मिलेगा ।
ये अनादि हैं अनंत भी ।
ये भोगिनी लावण्या हैं 
ये योगिनी संत भी ! 
*गिरीश बिल्लोरे मुकुल*
कल रात लिखी इस कविता को आज जबलपुर एक्सप्रेस के 7 दिसम्बर 2020 के अंक ने प्रकाशित भी कर दी 
 

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