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शुक्रवार, 14 जनवरी 2022

सलिल चिंतन - प्रेम लेखक डॉ सलिल समाधिया

प्रेम
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"प्रेम नहीं बचेगा तो हम में से कोई नहीं बचेगा!
प्रेम का खत्म हो जाना जीवन का खत्म हो जाना है.. फिर चाहे वह व्यक्तिगत जीवन हो या समूची मनुष्य जाति का जीवन ही क्यों न हो !"
कल रात मैसेंजर में एक मित्र को लंबी चर्चा के बाद यह कंक्लूडिंग रिमार्क दिया !

बीते दिनों प्रेम के खिलाफ बोलने वालों से बहुत बातें हुईं !
जो सुनने मिला.. उसका मोटा मोटा मसौदा यह था -
-प्रेम-वेम कुछ नहीं होता!
-यह सब किताबी बातें हैं!
- प्रेम कहानियाँ, कवियों-लेखकों की कल्पनाएं मात्र हैं !
-प्रेम के नाम पर एक दूसरे का शोषण है!
-सब जिस्म का भूगोल है और कुछ नहीं !
आदि आदि !!
बात तो प्रेम के विराट स्वरूप पर होनी थी मगर ज्यादातर लोगों की बातें, स्त्री पुरुष प्रेम तक ही सीमित रहीं !
इस चर्चा ने मुझे सोच में डाल दिया कि इतने अधिक लोग प्रेम के अनुभव से वंचित कैसे हैं ?
मेरे लिये यह जलवायु असंतुलन और परमाणु निरस्त्रीकरण से भी बड़ा मसला है कि मनुष्य प्रेम के विरोध में खड़ा हो जाए  !
बहुसंख्यक लोगों में प्रेम का अभाव यह बताता है कि मनुष्य अभी प्रेम की उच्चता तक न उठ सका है- उल्टे उसने प्रेम को अपनी कामना और वासना की कीचड़ में उतार लिया है !
यही कारण है कि प्रेम का उसका अनुभव, परस्पर लेनदेन और शोषण की दास्तान के अलावा कुछ नहीं है !
अगर प्रेम जैसी प्रचंड ऊर्जा, हमारी चेतना को रूपांतरित न कर सके तो यह बहुत सोचने वाली बात है !
हमारा प्रेम, हमारी चेतना की अवस्था बताता है !
..अगर आप कठोर हैं तो आपका प्रेम भी कठोर होगा, 
..अगर आप अहंकारी हैं तो आपके प्रेम में भी सर्वत्र अहंकार ही दिखेगा,
..अगर आप देह लोलुप हैं, तो आपका प्रेम देह भोग से अधिक नहीं होगा !
..अगर आप बोर और एकांगी व्यक्ति हैं.., उबाऊ और एकरसी हैं.. तो आपका प्रेम भी बोरिंग ही रहने वाला है !
प्रेम, अपरिसीम चेतना है !
 मगर आपसे प्रेम की उतनी ही अभिव्यक्ति होगी जितनी आपकी चेतना की स्थिति है!

इधर अनेक स्त्रियों का यह भी अनुभव रहा है कि पुरुष का प्रेम सिर्फ सेक्स तक सीमित रहता है !
तो क्या प्रेम और सेक्स दो पृथक-पृथक बातें हैं ? 
क्या दो जोड़ों में समागम का यह अर्थ है कि उनमें में प्रेम नहीं है और मात्र दैहिक आकर्षण था ??
यह ऐसा प्रश्न नहीं है जिसका कोई जनरलाइज्ड उत्तर दिया जा सके !  प्रेम का अनुभव नितांत वैयक्तिक अनुभव है !
प्रेम और संभोग, बेशक दो अलग-अलग चीजें हो सकती हैं! लेकिन 'प्रेम में संभोग', प्रेम की ही एक अभिव्यक्ति होती है !
प्रेमी युगल जब एक साथ होते हैं तो उनकी समस्त ऊर्जा ( स्थूल और सूक्ष्म ऊर्जा) एक दूसरे में समाहित होना चाहती है !
उनका शरीर, मन, प्राण सभी कुछ मेल्ट हुआ जाता है !
अगर वे स्वस्थ हैं, प्रफुल्लित है, ऊर्जा से सराबोर हैं.. तो क्यों न वे उसका अधिकतम आनंद उठाएं, और एकत्व और एक्सटेसी के शिखर को अनुभव करें !!!
मिलन भी प्रेम के हजार एक्सप्रेशंस में एक एक्सप्रेशन  है!
प्रेम कभी याद के रूप में अभिव्यक्त होता है ,
कभी सहयोग के रूप में,
कभी केयर और दुलार के रूप में, कभी जिम्मेदारी के रूप में ,
कभी बेकरारी और विकलता के रूप में.. तो कभी क्रोध के रूप में भी प्रकट होता है !
 प्रेम की अभिव्यक्ति सिर्फ प्रेमपूर्ण बातें ही नहीं है, लड़ाई और बहस भी उसकी एक अभिव्यक्ति है, सेक्स भी  !
 प्रेम है, तो प्रेम के सब रंग जायज हैं.. प्रेम नहीं है तो सब नाजायज है !!
मगर प्रेम का पता कैसे लगे कि प्रेम है ?
इसकी तो एक ही खबर है.. "मैं" की गैरमौजूदगी !
"मैं" मौजूद है तो प्रेम नहीं है !
प्रेम राह में एक ही रोड़ा है - अहंकार!
अहंकार के छोटे से डबरे में, प्रेम जैसे विशाल समुंदर  का समा पाना संभव नहीं !
मेरे देखे,  प्रेम के विरोध में अधिकतर वही लोग हैं.. जो प्रेम में होने के बावजूद अपना अहंकार न गला पाए !
क्योंकि जब प्रेम के साथ ..'मैं, 'मेरा विचार, मेरा मत, मेरा शरीर , मेरा लाभ, मेरी हानि '  जैसी बातें भी दिमाग में चलने लगती हैं..  तब प्रेम के प्रवाह में हजार अवरोध पैदा हो जाते हैं !
जिस तरह स्ट्रेस और  गलत जीने से शरीर में डायबिटीज,  ब्लड प्रेशर और रोग प्रदायक टॉक्सिंस बढ़ते जाते हैं.. जो अंततः दुःसाध्य रोग , मर्मान्तक पीड़ा और मृत्यु का कारण बनते हैं.. उसी तरह अहंकार में जीने से भी नकारात्मक मनोभावों के  टॉक्सिंस बनते हैं जो आखिरकार  प्रेम को बीमार करके खत्म कर देते हैं !
.. फिर यही बीमार लोग, इस लेख में ऊपर कहीं बातें दोहराते पाए जाते हैं..
 - प्रेम वेम कुछ नहीं होता,
 - सब गिव एंड टेक के रिश्ते हैं,
 -प्रेम, देह की लास्ट मात्र है और कुछ नहीं
 - मनुष्य की सेक्सुअलिटी का आदमी संवेग है.. और कुछ नही.. आदि आदि!

.. नही,
 प्रेम, चेतना के विस्तार का बड़े से बड़ा अवसर है !
 प्रेम, जगत को अखंड, अविभाजित देख पाने की बड़ी से बड़ी दृष्टि है!
प्रेम, हमारे अहं की लकीर को मिटा देने वाला ऐसा डस्टर है.. जो हमारी स्लेट को पूरी तरह कोरा कर देता है.. ताकि उस पर नए चित्र बनाने की संभावना प्रकट हो !
मगर हम इतने कंडीशंड माइंडसेट के लोग हैं कि, हम अपने अवचेतन पर पुराना लिखा कुछ भी मिटाने को तैयार नहीं है !
यही कारण है कि हम प्रेम के अवसर से चूक जाते हैं और वही 'बासे' और 'ठस' आदमी बने रहते हैं और प्रेम हमारे भीतर कोई ताजगी नहीं ला पाता !
(क्षमा करें , यह लेख बड़ा होता जा रहा है.. हो सके तो साथ बने रहिएगा )

हम अपनी वासना और मोह के छोटे से गणितीय दायरे में प्रेम करते हैं और अपने "तथाकथित प्रेम" से हासिल लाभ हानि के  व्यक्तिगत अनुभवों को, पूरी दुनिया का अनुभव मानकर उसका सामान्यीकरण कर देते हैं!
हम यह कभी नहीं देख पाते कि जिस तरह हमारे स्तर पर
 'मैं और तू' का विभाजन जीवन का सत्य है, तो उसी तरह एक दूसरे स्तर पर अखंड चेतना भी जीवन का सत्य है !
प्रेम में होना,  उसी अखंड चेतना में प्रवेश करना है !
प्रेम में होना अद्वैत की अवस्था में होना है !
प्रेम का कोई ऑपोजिट नहीं है!
हम 'नफरत' शब्द और उससे जुड़े भाव को भले ही प्रेम का  विरोधी करार दें किंतु 'नफरत' प्रेम का अपोजिट नहीं है!
क्योंकि नफरत में,  प्रेम की हैसियत के बराबर  का कुछ भी नहीं है !

आपका चाहे जो स्वभाव हो ..वह प्रेम जो आपको पूरा रूपांतरित न कर दे,  प्रेम नहीं है!
अगर आप प्रेम में है और वही व्यक्ति हैं.. तो आप प्रेम नहीं है !
यदि प्रेम का आप का अनुभव दुख और शोषण का अनुभव है.. तो जान लीजिए कि वह प्रेम का अनुभव नहीं था !
वह सब जिसने आपके हृदय को दाग दाग और बदसूरत किया है.. वह और जो कुछ भी था.. यह तो तय है कि प्रेम नहीं था  !
प्रेम का अभाव ही दुःख, डर, डिप्रेशन और रोग का कारण है!
 प्रेम तो आरोग्य का प्रदाता है !

"नियर डेथ एक्सपीरियंस" से लौटे बहुत लोगों ने बताया है कि मृत्यु के आखिरी क्षणों में, घनी पीड़ा में, रोग शैया पर.. पैसा और मकान याद नहीं आते - सिर्फ उन्हीं लोगों के चेहरे याद आते हैं जिन्होंने हमसे निश्चल प्रेम किया है,  या जिन से हमने निश्चल प्रेम किया था !
 पीड़ा के उन क्षणों में, जब किसी मेडिसिन से आराम नहीं मिलता.., उन "प्रेम स्मृतियों"  से बड़ी कोई औषधि नहीं होती !
किसी अपने प्रिय का हाथ, हाथ में हो, तो रोगी का सब दर्द ग़ायब हो जाता है !
सब दवाओं की दवा है.. प्रेम !
प्रेम से बड़ी मसीहाई नहीं !!
अगर किसी से प्रेम है और जीने की ललक है तो.. मनुष्य दुःसाध्य बीमारियों से जीतकर आ जाता है !
किसी परिजन, प्रियजन के हॉस्पिटलाइज्ड  हो जाने पर, हम अस्पताल में लाखों रुपए खर्च कर डालते हैं!
 घर गृहस्थी बेचकर कर्जा लेकर भी, उसकी सांस सांस बचा लेना चाहते हैं !
 आखिर क्यों ?
 क्योंकि हम उस से प्रेम करते हैं!
 प्रेम, उसमें और हममें विभाजन नहीं देखता!
उसका होना, हमारा होना है !
वह नहीं होगा,  तो हमारे होने में भी कमी हो जाएगी !
... मगर ऐसा प्रेम,  पड़ोसी के लिए हमारे भीतर क्यों नहीं उमड़ता ?
वृक्ष के गिरने से, पशु के मरने से हमारे होने में कमी क्यों नहीं आती  ??
प्रेम बार-बार हमारे सामने प्रकट होता है.. मगर प्रेम बार-बार यह प्रश्न भी तो खड़े करता है कि हमारा प्रेम "मैं" और "मेरों" तक ही क्यों सीमित है  ??

ऊपर हमने कहा था कि "मैं" की मौजूदगी प्रेम की क्रिया नहीं है.. क्योंकि उसमें दूसरे का ख्याल नहीं है !
यही वजह है कि रेप होते हैं, हत्याएं होती हैं, चोरी होती है!
यही वजह है कि हम सड़क पर तेज गाड़ी चलाते हैं.. इस बात से बेपरवाह कि उसी सड़क पर छोटे बच्चे और बूढ़े भी चलते हैं!
हमारी बेपरवाही से एक्सीडेंट होते हैं, मृत्यु होती हैं, जिंदगियां उजड़ जाती हैं..मगर हमारी स्व-केंद्रीयता नहीं जाती !!
 हमारा इस तरह जीना, यह बताता है कि हम प्रेम में नहीं हैं!
अन्यथा हमें सर्व का ख्याल होता और हमारे हर कृत्य में सजगता उतर आती !!

देहवाद और पदार्थ उन्मुख संस्कृति ने जिस तत्व की गरिमा को सर्वाधिक रिड्यूस किया है.. वह प्रेम है !
 इससे बड़ी नासमझी और क्या हो सकती है कि प्रेम की बात,  मजाक और नासमझी, समझी जाने लगी है !
यह चेत जाने की घड़ी है !
प्रेम ही वह प्राणशक्ति है जिससे जगत के सब तार, तंतु जुड़े हैं !
प्रेम न बचा, तो हममें से कोई नहीं बचेगा.. और सबसे पहले इसका शिकार होगा पर्यावरण, खनिज, जंगल, जीव जंतु और अंत में हम सब भी !!

बीते साल हम सभी ने जितनी मृत्यु देखी है, उतनी सदियों में कभी ही देखी जाती है  !
कभी हमारे जीवन का हिस्सा रहे.. तरुण, युवा, वृद्ध देखते-देखते ही आंखों से ओझल हो गए  !
.. सब बंगला, गाड़ी, पैसा और उपाय धरे के धरे रह गए !
जरा ख्याल करें कि जो भी लोग जुदा हुए हैं, जब उनकी याद आती है तो हमें क्या याद आता है  !
अक्सर तो वही दृश्य जहां कोई अहं नहीं था और निश्छल प्रेम की तरंग, उल्हास और हंसी थी !
प्रेम हर बार हमें यह जता जाता है कि प्रेम से अधिक कीमती कुछ भी नहीं  !!

प्रेम में जीते प्रेमी, अक्सर यह कहते पाए जाते हैं कि.. "अब इस क्षण, मृत्यु भी आ जाए तो कोई हर्ज नहीं है.. मैंने तुम्हारे साथ जीवन जी लिया है !"
समझदारों को यह बात नासमझी लग सकती है कि कोई मृत्यु के लिए इतना तैयार कैसे हो सकता  है !
क्योंकि उनकी पूरी चेष्टा जीवन को बचाने की है जबकि प्रेमी की पूरी चेष्टा जीवन जी जाने की है !
प्रेम में, जीवन-मृत्यु कोई पृथक-पृथक बातें नहीं है.. प्रेमी इतना इंटेंस और समग्र जीता है.. कि वह जीवन ही नहीं मृत्यु को भी surpass कर जाता है !
जीवन का जितना सघन बोध, प्रेम में होता है, उतना और किसी बात से नहीं होता !
प्रेमी, अंततः प्रेम ही हो जाता है! यही प्रेम की सिद्धि है !

इस संसार में जो भी थोड़ा बहुत सौंदर्य है, वह उन्हीं लोगों से है जिनके हृदय में सभी के लिए प्रेम है !
वह क्या करते हैं, क्या कमाते हैं, उनकी क्या हैसियत है  इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता.. मगर उनके होने से मनुष्यता की हैसियत बढ़ जाती है  !!

1 टिप्पणी:

  1. हर किसी के भीतर एक गीत सोता है, जो इसी का प्रतीक्षमान होता है कि कोई उसे छू कर जगा दे, जमी परतें पिघला दे और *प्रेम-धार* बहा दे।

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