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सोमवार, 11 सितंबर 2023

Connection कनैक्शन Dr Salil Samadhiya

कुछ लोगों के साथ आप सहज अनुभव करते हैं. उनका होना आप में कुछ खलल नहीं डालता, उल्टे उनसे मिलकर आप कुछ खाली ही हो जाते हैं.
वहीं कुछ लोग ऐसे होते हैं कि उनका अगर फोन भी आ जाए, तो नाम देखकर उठाने का जी नहीं करता.
उनसे दो मिनट बात करना भी बड़ा भारी गुजरता है.
मुझे सहज, अनौपचारिक और लपड़ धपड़ बात करने वाले ही भाते हैं.
वे लोग, जो जैसे हैं..वैसे हैं.
किसी पर किसी प्रकार का प्रभाव नहीं डालना चाहते, ऎसे लोगों के साथ मैं, पानी में पानी की तरह मिल जाता हूं.
वहीं ख़ुदनुमाई और खुदपरस्ती से भरे लोग मुझमें विकर्षण पैदा करते हैं.
वे लोग भी, जो अतिरिक्त गुरु-गंभीर हैं और औपचारिक बातें करते हैं मुझे पसंद नहीं आते. 
किसी लोकाचार वश मैं उनसे मिल भले लूं, पर उनसे मेरा कनेक्शन नहीं बनता.

इसी तरह कुछ स्थान भी होते हैं.
मसलन, मैं किसी कन्वेंशन, सेमिनार, समारोह जैसे स्थान पर कंफर्टेबल अनुभव नहीं करता.
वे सभी जगहें जहां अतिरिक्त दिखावे और औपचारिकता ओढ़े रहने की दरकार हो, मुझ में अरुचि पैदा करती हैं.
सच कहूं तो मुझे वही जगहें भाती हैं जहां मैं, अभी जैसा हूं उन्हीं कपड़ों में जा सकूं, और जैसा मित्रों या घर के लोगों से बात करता हूं उसी बे-तकल्लुफ़ी से बतिया सकूं.
जब छोटी वय का था तब जरूर कभी-कभार बाहरी आडंबर से प्रभावित हुआ होऊँ, 
मगर अब ऐसा हो गया है कि पैकेजिंग का मुझ पर कोई असर नहीं पड़ता.
वह चाहे इंटेलेक्चुअल का स्वांग धरा कोई खुरदुरा नास्तिक हो कि निहलिस्ट,
रहस्य और तसव्वुफ बघारने वाली कवियित्री हो कि,
मिठास की पुड़िया बना, जटाजूट, चोगाधारी आध्यात्मिक साधु,..मेरे नासापुट नकलीपन की गंध बहुत जल्दी भाँप जाते हैं.
इसके उलट, मौलिक व्यक्ति से मेरा कनेक्शन तुरंत बन जाता है. क्योंकि वह जैसा है उससे कुछ इतर दिखाने की कोशिश नहीं कर रहा होता.
उसमें सच्चाई होती है और सच से बड़ा कोई कनेक्शन नहीं.

लेकिन इधर अनेक वर्षों से देख रहा हूं कि मेरा किसी से कोई गहरा कनेक्शन नहीं बन पा रहा.
लोग बहुत आडंबरी हो गए हैं. 
सूचना और ज्ञान की इतनी बंबारडिंग हो रखी है कि जीवन से मौलिकता नष्ट हो गई है.
व्यक्ति उधार ज्ञान में ही पूरा जीवन जी जाता है और अपनी आत्मा के मूल स्वर से उसकी कोई सम-स्वरता नहीं बन पाती.
फिर जिसका स्वयं से ही नाता न बन सका उसका किसी और से क्या नाता बन सकेगा  !!

एक प्रश्न मेरे मन में हमेशा उठता था कि ऐसा क्यों होता है कि, जिस व्यक्ति से बहुत सारे लोग प्रभावित होते हैं उससे मैं प्रभावित नहीं हो पाता.
बाद में पाया कि मैं मौलिकता से ही प्रभावित होता हूं जो अब इधर ढूंढे नहीं मिलती .
कभी किसी अमृता प्रीतम ने अपनी तरह से जिया और लिखा, वह उनकी मौलिकता थी. मगर बाद की कवियित्रियां उनकी छाया बनकर रह गई. 
किसी मुक्तिबोध ने अलग ढंग से लिखा था क्योंकि जीवन को देखने, अनुभव करने और बयान करने की उसकी अपनी दृष्टि और वाणी थी. 
मगर फिर नकलचीं आए और साहित्य जगत में,छोटे-छोटे मुक्तिबोध,सब ओर फैल गए .
किसी ओशो ने अपनी तरह से जिया और कहा मगर फिर उनके मिमिक्री आर्टिस्ट जगह जगह उग आए.
सब ओर दोहराव ही दोहराव है, मौलिकता का ताज़ा झोंका कहीं से नहीं आता.
दोहराव से ऊब उठती है.
एक बार पकी तरकारी को चौथी या पांचवी बार नहीं खाया जा सकता. 

फिर मनुष्य से कनेक्शन तो छोड़िये, इधर मैं देखता हूं कि,
टूरिज्म पर निकले लोग भी, अपना अधिक वक्त लग्जरी कार, होटल, रेस्टोरेंट या मॉल में गुजारते हैं, न कि खुले आकाश, पहाड़ या समंदर के तट पर.
गोया प्रकृति से उनका कोई कनेक्शन ही नहीं बनता.
शायद यही कारण है कि हर व्यक्ति भीतर से बहुत अकेलापन और विषाद अनुभव करता है.

जल में जल की धारा मिलने से जल का परिमाण बढ़ जाता है.
अलकनंदा और भागीरथी मिलकर गंगा बन जाती हैं.
तब ही वह विशाल जल राशि,यात्रा पथ पर आगे बढ़ पाती है.
हर नदी में कितनी ही सहायक नदियों का मिलन होता है.
मगर मनुष्य, पानी में पानी की तरह नहीं मिलता.
उसने अपने चारों तरफ इतनी सीमाएं बना ली हैं कि, दूसरे मनुष्य की उसके भीतर कोई पहुंच ही नहीं है.
यही कारण है कि उसके जीवन में रस और प्राण की बढ़ोतरी न हो पा रही.
वह उतना वॉल्यूम और वेग नहीं जुटा पा रहा कि चेतना के किसी महासागर की ओर उसकी यात्रा संपन्न हो सके.

##सलिल##

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