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शनिवार, 21 जुलाई 2018

विष का प्यासा होता गिरीश


जब जब कुमुदनी  मुस्कुराए तो याद तुम्हें  कर  लेता हूँ
आँखों से बहते धारे से- मन का मैं सिंचन  कर  लेता  हूँ ..

इस भीड़ भाड़ में क्या रक्खा, सब कुछ एकाकी की रातों में -
तब बिना भेद के इस उसके, नातों पे चिंतन कर  लेता  हूँ !!

कहतें हैं सागर मंथन से नवरत्न मिला करता ही करतें हैं...?
विष का प्यासा होता गिरीश , मन का मंथन कर लेता हूँ..!!




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