प्रणय पिपासा प्रेम नहीं प्रिय
*सुप्रभात शब्द साधक-साधिकाओं को* *यह रचना भोर काल के सात्विक चिंतन की परिणीति है..! आप इसे किस दृष्टिकोण से स्वीकारेंगे यह आपकी टिप्पणियों से संसूचित होगा* 🙏🏻🙏🏻🙏🏻 प्रणय पिपासा प्रेम नहीं प्रिय प्रेम को अब विस्तार तो दे दो । प्रेम के पथ के पथचारी को भय कैसा कैसी अभिलाषा । न तो पाने की लालच ही खोने की जाने परिभाषा ।। साहस कर आया है जो द्वारे - प्रीत-दृष्टि एक बार तो दे दो ।। गीत लिखो या ग्रंथ लिखो सबके सब ही अर्थहीन से । मादक रूप चपल यौवन के सन्मुख तुम क्यों दीनहीन से।। प्रीत पराजित-रुदन कहां है- मुखर निमंत्रण इस बार तो दे दो ।। जो दुर्बल हो वह प्रेमी कैसा जो प्रेमी वो ही बलशाली । प्रेम वाटिका तक जाके देखो मन-मानस है जिसका माली ।। अमरबेल से शोषित तरुओं को कर संरक्षित अरु प्यार भी दे दो ।। *गिरीश बिल्लोरे मुकुल*