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शुक्रवार, 5 सितंबर 2014

मन उपवन सा महक उठता है


मैं जब भी 
तुमको सोचती हूँ
मन उपवन सा
महक उठता है मेरा |
नहीं मिलते है
नयन हमारे
न हम सम्मुख आते है ,
पर तुझे
ख्याल में लाते ही
मैं और मन
दोनो खिल जाते हैं ,
कहो ये कैसा
बंधन है ??
मेरे मन का तुमसे |

कुछ भी सोचना

अब संभव नहीं 
जब से तुम्हारे 
सपनों की आवाजाही
मानस में
अहर्निश जारी है..
तुम्हारी प्रश्नवाचिका आंखें
सैकड़ों उमड़ते घुमड़ते
प्रीत के  सवालों को
हल कर देतीं हैं.
और 
महक उठता हूं 
निशिगंधा की गंध से
हां वो मदालस गंध 
जो आभासी है.. 
                  

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