ओरे पपीहे ! यही है जग की रीत, कौन किसी का मीत ?
किस की ख़ातिर तू गाता है, ये मन मोहक गीत !
इस जंगल में कौन सुनेगा पपीहे तेरा ये संगीत ?
सुब्ह सवेरे छेड़ न देना कोई विरह का गीत !
किस को बुलाता है तू निस दिन कौन है तेरा मीत' ?
सब को गाना है दुनिया में अपना अपना गीत,
किस की ख़ातिर तू गाता है, ये मन मोहक गीत !
इस जंगल में कौन सुनेगा पपीहे तेरा ये संगीत ?
सुब्ह सवेरे छेड़ न देना कोई विरह का गीत !
किस को बुलाता है तू निस दिन कौन है तेरा मीत' ?
पी को पुकारे, पी को ढूंडे तेरा इक इक गीत
सब को गाना है दुनिया में अपना अपना गीत,
कितनी सदियों से जारी है, तेरा ये संगीत !
मिल जायेगा इक दिन तुझ को तेरा बिछड़ा मीत,
ख़त्म न होगा तेरा गाना रे पपीहे जायेंगे युग बीत'
गाता जा तू सांझ सवेरे , होगी तेरी जीत !
प्रकृति राय की अनुमति के साथ प्रकाशित
बहुत सुन्दर और सार्थक कविता, आईना दिखाती हुई |
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