एक गीत प्रीत का गुन गुना रहा है मन

थी चपल हुई सरल , प्रेम राग है यही नयनों ने कह डाली बातें सब अनकही नेह का निवाला लिए दौड़ती फिरूं मैं क्यों पीहर के संयम को आजमा रहा है मन ! ****************************************** भोर की प्रतीक्षिता,कब तलक रुकूं कहो सन्मुख प्रतिबंधों के कब तलक झुकूं कहो बंधन-प्रतिबंधन सब मुझ पे ही लागू क्यों मुक्त कण्ठ गाने दो जो गुनगुना रहा है मन ****************************************** बैठीं हूं कब से प्रीत के निवाले ले मन में उलझन, हिवडे में छाले ले बेसुध हूं सोई नहीं.. चलो माना नींद यही मत जगाओ सोने दो कसमसा रहा है मन ******************************************