वेदना संवेदना निश्चल कपट
को त्याग बढ़ चली हूँ मैं
हर तिमिर की आहटों का पथ
बदल अब ना रुकी हूँ मैं
साथ दो न प्राण लो अब
चलने दो मुझे ओ प्राण प्रिये ।
निश्चल हृदय की वेदना को
छुपते हुए क्यों ले चली मैं
प्राण ये चंचल अलौकिक
सोचते तुझको प्रतिदिन
आह विरह का त्यजन कर
चलने दो मुझे ओ प्राण प्रिये ।
अपरिमित अजेय का पल
मृदुल मन में ले चली मैं
तुम हो दीपक जलो प्रतिपल
प्रकाश सौरभ बन चलो अब
चलने दो मुझे ओ प्राण प्रिये ।
मौन कर हर विपट पनघट
साथ नौका की धार ले चली मैं
मृत्यु की परछाई में सुने हर
पथ की आस ले चली मैं
दूर से ही साथ दो अब
चलने दो मुझे ओ प्राण प्रिये ।
--- दीप्ति शर्मा
अपरिमित अजेय का पल
जवाब देंहटाएंमृदुल मन में ले चली मैं
तुम हो दीपक जलो प्रतिपल
प्रकाश सौरभ बन चलो अब
चलने दो मुझे ओ प्राण प्रिये ।
बहुत सुन्दर भाव, सुन्दर प्रस्तुति...
संध्या जी यशोदा जी आभार
जवाब देंहटाएंअपरिमित अजेय का पल
जवाब देंहटाएंमृदुल मन में ले चली मैं
तुम हो दीपक जलो प्रतिपल
प्रकाश सौरभ बन चलो अब
चलने दो मुझे ओ प्राण प्रिये ।
बहुत सुंदर... भाव भी और अभिव्यक्ति भी ...
शुभकामनायें
aap sabhi ka bahut bahut aabhar
जवाब देंहटाएंsundar kavita
जवाब देंहटाएंतुम हो दीपक जलो प्रतिपल
जवाब देंहटाएंप्रकाश सौरभ बन चलो अब ...
बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति ... भावमय रचना है ...