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गुरुवार, 5 जुलाई 2012

प्राण प्रिये


वेदना संवेदना निश्चल कपट
को त्याग बढ़ चली हूँ मैं
हर तिमिर की आहटों का पथ
बदल अब ना रुकी हूँ मैं
साथ दो न प्राण लो अब
चलने दो मुझे ओ प्राण प्रिये ।

निश्चल हृदय की वेदना को
छुपते हुए क्यों ले चली मैं
प्राण ये चंचल अलौकिक
सोचते तुझको प्रतिदिन
आह विरह का त्यजन कर
चलने दो मुझे ओ प्राण प्रिये ।

अपरिमित अजेय का पल
मृदुल मन में ले चली मैं
तुम हो दीपक जलो प्रतिपल
प्रकाश सौरभ बन चलो अब
चलने दो मुझे ओ प्राण प्रिये ।

मौन कर हर विपट पनघट
साथ नौका की धार ले चली मैं
मृत्यु की परछाई में सुने हर
पथ की आस ले चली मैं
दूर से ही साथ दो अब
चलने दो मुझे ओ प्राण प्रिये ।
--- दीप्ति शर्मा 

6 टिप्‍पणियां:

  1. अपरिमित अजेय का पल
    मृदुल मन में ले चली मैं
    तुम हो दीपक जलो प्रतिपल
    प्रकाश सौरभ बन चलो अब
    चलने दो मुझे ओ प्राण प्रिये ।
    बहुत सुन्दर भाव, सुन्दर प्रस्तुति...

    जवाब देंहटाएं
  2. अपरिमित अजेय का पल
    मृदुल मन में ले चली मैं
    तुम हो दीपक जलो प्रतिपल
    प्रकाश सौरभ बन चलो अब
    चलने दो मुझे ओ प्राण प्रिये ।
    बहुत सुंदर... भाव भी और अभिव्यक्ति भी ...
    शुभकामनायें

    जवाब देंहटाएं
  3. तुम हो दीपक जलो प्रतिपल
    प्रकाश सौरभ बन चलो अब ...

    बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति ... भावमय रचना है ...

    जवाब देंहटाएं

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