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रविवार, 20 मई 2012

जब हम तुम नज़दीक नहीं तो- होता है सांचा अभिसार !!


विरह ताप से रिसें जो रिश्ते  कैसे फ़िर पाएं आकार ? 
एहसासों के बंधन को , मत कहिये इक जनव्यव्हार !!
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अनुबंधों से प्रतिबंधों तक सब कुछ मेरा तेरा है.....
प्रीत हुई तो सब कुछ "अपना" ना कुछ तेरा-मेरा है !
ध्यान से सुनना मन की वीणा यही कहे है हर झंकार !!
                                        एहसासों के बंधन को , ....... !!
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जिसने विरह की पीढा भोगी, उसका उतना तापस मन है
प्रीत-आधारी दुनियां साथी,शेष सभी कुछ उजड़ा वन  है !
जब हम तुम नज़दीक नहीं तो- होता है सांचा अभिसार !!
                                        एहसासों के बंधन को , ......... !!
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न तुम भटको न मैं अटकूं, चिंता के इस बयाबान में
एक कसम हम दौनों ले लें-रहें हमेशा एक ध्यान में !
प्रीत प्रियतम एक पावन पूजा,न तो तिज़ारत न व्यापार
                                       एहसासों के बंधन को , ......... !!
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6 टिप्‍पणियां:

  1. न तुम भटको न मैं अटकूं, चिंता के इस बयाबान में
    एक कसम हम दौनों ले लें-रहें हमेशा एक ध्यान में !.. वाह !! आपकी रचना बहुत पसंद आई गिरीश जी .. !!

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  2. आभार ये एक "आध्यात्मिक एहसास है"

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  3. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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  4. प्रीत प्रियतम एक पावन पूजा,न तो तिज़ारत न व्यापार
    यही होता है सांचा अभिसार. बहुत सुन्दर रचना... गहन भाव...

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