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शनिवार, 29 अक्तूबर 2011

जब तुम अंगूठे और तर्जनी के बी़च रवीली रंगोली कस के उठातीं थीं



हां !! मुझे याद हैं
वो दिन
जब  तुम
अंगूठे और तर्जनी के बी़च
रवीली रंगोली कस के उठातीं थीं
फ़िर रवा-रवा रेखाओं से
बिंदु - बिंदु मिलाती थीं
आंगन सजाती थीं..!!
तब मैं भी
एक "पहुना-दीप"
तुम्हारे आंगन में
रखने के बहाने
आता था ..
याद है न तुमको
फ़िर अचकचाकर तुम पूछती-"हो गई पूजा !"
और मैं कह देता नहीं-"करने आया हूं  दीप-शिखा की अर्चना.."
अधरों पर उतर आती थी
मदालस मुस्कान
ताज़ा हो जातीं हैं वो यादें
जब रंगोलियां आंगन सजातीं हैं

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