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सोमवार, 22 अगस्त 2011

डरतीं हूं ये सतफ़ेरा जोड कहीं.. आभासी न रह जाए..?

एक प्रेयसी सी
नित मैं बांट जोहती 
अपलक !!
अधगूंथे आटे भरे हाथ से
उठातीं हूं ..
फ़ोन एस एम एस पढ़ने को !!
वो जो तुम्हारा नही होता !!
अनचाहे व्यावसायिक 
सदेशों की तरह 
तुम्हारे 
संदेशों को पढ़ पढ़ उकता गई हूं
तुम एक न एक विवषता के सहारे
मुझे भरोसा देने में कामयाब हो जाते हो..
डरतीं हूं ये सतफ़ेरा जोड
कहीं.. आभासी न रह जाए..?





2 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत अच्छी रचना... रिश्तों के बदलते आयामों पर गहरा कटाक्ष... आभार

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  2. बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
    श्री कृष्ण जन्माष्टमी की बहुत-बहुत शुभकामनाएँ।

    जवाब देंहटाएं

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