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शुक्रवार, 17 सितंबर 2010

हां सोचती तो है कभी कभार छै: बरस की थी तब वो भी तो बन गई थी दुलहनियां

एक किताब
सखी  के साथ
बांचती बिटिया
पीछे से दादी देखती है गौर से
बिटिया को लगभग पढ़ती है
टकटकी लगाये उनको देखती
कभी पराई हो जाने का भाव
तो कभी
कन्यादान के ज़रिये पुण्य कमाने के लिये
मन में उसके बड़े हो जाने का इंतज़ार भी तो कर रही है ?
इसके आगे और क्या सोच सकती है मां
हां सोचती तो है कभी कभार
छै: बरस की थी तब वो भी तो बन गई थी दुलहनियां
तेरह की थी तो गरभ में कल्लू आ गया था
बाद वाली चार मरी संतानें भी गिन रही है
कुल आठ औलादों की जननी
पौत्रियों
के बारे में खूब सोचती हैं
दादियां उसकी ज़ल्द शादी के सपने
पर ख़त्म हो जाती है ये सोच

1 टिप्पणी:

  1. प्रिय बंधुवर गिरीश बिल्लोरे जी
    नमस्कार !
    हम सबकी दादी - नानी का सच है यह …
    छह बरस की थी तब वो भी तो बन गई थी दुलहनिया
    हमारी संयुक्त परिवार प्रणाली के महत्वपूर्ण पात्रों का सजीव चित्रण किया है आपने अपनी कविता में ।

    बधाई एवम् मंगलकामनाएं !
    - राजेन्द्र स्वर्णकार

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