बुधवार, 9 जून 2010
हां..! ये शाम उस शाम से जारी हर शाम पर भारी
हां..! ये शाम
उस शाम से जारी
हर शाम पर भारी
जब हुई थी
मुलाक़ात
खनकती आवाज़
से.... !
आओ..
फ़िर उस पहली शाम को याद करें
रिक्तता में रंग भरें
लौटें उस शाम की तरफ़
जो आज़ हर शाम पे भारी है...!
*************************
वो जो मुझे खींचता है
उस ओर जिधर तुम हो
उसे प्यार का नाम दें !
आज़ इस बहाने
एक-दूजे का हाथ थाम लें...!!
न तो तुम और नही मैं रिक्त रहूं
न तुम कहो
न मैं सुनूं...!
मैं प्रीत के धागे लेकर आया हूं उलझे हुए
एक शामियाना
हमारे प्यार के लिये
कभी तुम बुनो कभी मैं बुनूं...!!
[चित्र रानी विशाल जी की पोस्ट न आए विरह की रैन से साभार ]
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बहुत सुन्दर रचना!! बधाई।
जवाब देंहटाएंbahut sundar lajawaab rachna sirji...
जवाब देंहटाएंभावों को बहुत खूबसूरती से पिरोया है...
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर रचना...
जवाब देंहटाएंआप इस समय कहाँ पर हैं कोई अता पता नहीं है....
जवाब देंहटाएंजी भैया सी एम साब के कुंडम प्रवास के लिये तैनात था जी
जवाब देंहटाएंबहुत खूब...सुंदर भावपूर्ण रचना...बधाई जी
जवाब देंहटाएंbahut sunder bhaav poorn rachna. badhayi.
जवाब देंहटाएंbahut achi abhivykti.
जवाब देंहटाएंसुन्दर भावपूर्ण रचना...
जवाब देंहटाएंएक शामियाना
जवाब देंहटाएंहमारे प्यार के लिये
कभी तुम बुनो कभी मैं बुनूं...!!
अत्यंत मनोहारी, रूमानी और भावपूर्ण रचना
और फिर शामियाना बुनने की ख्वाहिश के तो क्या कहने
बहुत सुन्दर
मैं प्रीत के धागे लेकर आया हूं उलझे हुए
जवाब देंहटाएंएक शामियाना
हमारे प्यार के लिये
कभी तुम बुनो कभी मैं बुनूं...!!
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बहुत प्यारी अभिव्यक्ति है!