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शुक्रवार, 15 मार्च 2013

एक गुलाबी सुबह... फ़ेसबुक पर चंडीदत्त शुक्ला

हर भोर,
मेरे उदास मुंह से
पहली आवाज़ तुम्हारी निकलती है.
हां, नाम तुम्हारा ही तो!
आंखें,
पहली सूरत देखती हैं तुम्हारे नाम की,
रास्ते उसी तरफ मुड़ते हैं,
जहां रुककर हमने बुना था एक सुबह कविता का अंकुर,
जो झुलस गया वक्त की चपेट में.
हर दिन तो वापस लौटती है मेरे-तुम्हारे साथ की खुशबू.
धूप बेरहम कितनी भी हो क्यों न,
एक दरख्त यकीन का अब भी बुलंद है.
दो घड़ी उसके तले रुककर देखो,
इतने बुरे भी नहीं हैं हमारे दुःस्वप्न,
उनके टूटने और नींद से बाहर आने के बाद मिलेगी,
एक गुलाबी सुबह...

हर भोर,
मेरे उदास मुंह से
पहली आवाज़ तुम्हारी निकलती है.
हां, नाम तुम्हारा ही तो!
आंखें,
पहली सूरत देखती हैं तुम्हारे नाम की,
रास्ते उसी तरफ मुड़ते हैं,
जहां रुककर हमने बुना था एक सुबह कविता का अंकुर,
जो झुलस गया वक्त की चपेट में.
हर दिन तो वापस लौटती है मेरे-तुम्हारे साथ की खुशबू.
धूप बेरहम कितनी भी हो क्यों न,
एक दरख्त यकीन का अब भी बुलंद है.
दो घड़ी उसके तले रुककर देखो,
इतने बुरे भी नहीं हैं हमारे दुःस्वप्न,
उनके टूटने और नींद से बाहर आने के बाद मिलेगी,
एक गुलाबी सुबह...








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