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सोमवार, 10 दिसंबर 2012

कैसे प्रीत की परिधि से बाहर जा ही सकता हूं..?












तुमने इश्क़ के तागों मुझको बांध रक्खा है
तुम्हारी इस जुगत मैं बाहर आ भी सकता हूं !
न जाने बात क्या है तुममें  सोचता मैं अक्सर.
कैसे प्रीत की परिधि से बाहर जा ही सकता हूं..?

देहरी द्वार के भीतर सब कुछ तुम सजाती हो
मेरे बारे में दिन भर सोचते तुम दिन बिताती हो
मृदुल मुस्कान से मुझको  यूं बांध के रखना
रसोई में दाल-सब्जी का फ़िर चखना ..
आज़ ये  पहनो,  रुको .तो ! फ़िर चले जाना !!
तुम्हारे इन्हीं तागों ने मुझको बांध रक्खा है
तुम्हारी इस जुगत कैसे बाहर जा भी सकता हूं !



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