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सोमवार, 28 मार्च 2011

चिंतन की सिगड़ी पे प्रीत का भगौना

साभार:प्रतिबिम्ब ब्लाग 
चिंतन की सिगड़ी पे प्रीत का भगौना
रख के फ़िर  भूल गई, लेटी जा बिछौना
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पल में घट भर जाते, 
नयन नीर की गति से
हारतीं हैं किरनें अब -
आकुल मन की गति से.
चुनरी को चाबता, मन बनके  मृग-छौना ?
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बिसर  गई जाते पल,
डिबिया भर  काज़ल था
सौतन के डर से मन -
आज़ मोरा व्याकुल सा
माथे प्रियतम के न तिल न डिठौना ? 
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 पीर हिय की- हरियाई
तपती इस धूप में
असुंअन जल सींचूं मैं
बिरहन के रूप में..!
बंद नयन देखूं,प्रिय मुख सलौना !!

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