प्रेम का सन्देश देता ब्लॉग

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शनिवार, 18 सितंबर 2010

मुन्डी भेजो मुंडी

साभार :-भोजपुरिया सिनेमा से 

  
एक अपहर्ता ने श्रीमति ”क” का अपहरण कर पति श्री ख को उसकी अंगुलि के एक हिस्से के साथ संदेश भेजा-”मैने तुम्हारी बीवी का अपहरण किया है बतौर प्रूफ़ अंगुली भेज रहा हूं बीवी को ज़िन्दा ज़िन्दा चाहते हो तो पचास लाख भेजो ”
पति ने तुरंत उसी पते पे उत्तर भेजा :”इस सबूत से  प्रूफ़ नही होता कि वो मेरी ही पत्नी की अंगुली है कोई बड़ा प्रूफ़ भेजो भाई ..... मुन्डी भेजो मुंडी  ”
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इस लतीफ़े के साथ आप सबको वीक एण्ड की शुभ कामनाएं

शुक्रवार, 17 सितंबर 2010

हां सोचती तो है कभी कभार छै: बरस की थी तब वो भी तो बन गई थी दुलहनियां

एक किताब
सखी  के साथ
बांचती बिटिया
पीछे से दादी देखती है गौर से
बिटिया को लगभग पढ़ती है
टकटकी लगाये उनको देखती
कभी पराई हो जाने का भाव
तो कभी
कन्यादान के ज़रिये पुण्य कमाने के लिये
मन में उसके बड़े हो जाने का इंतज़ार भी तो कर रही है ?
इसके आगे और क्या सोच सकती है मां
हां सोचती तो है कभी कभार
छै: बरस की थी तब वो भी तो बन गई थी दुलहनियां
तेरह की थी तो गरभ में कल्लू आ गया था
बाद वाली चार मरी संतानें भी गिन रही है
कुल आठ औलादों की जननी
पौत्रियों
के बारे में खूब सोचती हैं
दादियां उसकी ज़ल्द शादी के सपने
पर ख़त्म हो जाती है ये सोच

मंगलवार, 14 सितंबर 2010

मुआ दिल आया था उन पर कि आंख आ गई...!!


[Cartoon_Eye_by_janab93.jpg]जी हज़ूर , इन  आंखें  आने दिनों के  दौर में दुनियां कित्ती परेशान है आपको क्या मालूम आप को यह भी न मालूम होगा कि आज़ आपका यह ब्लागर भरी हुई आंख से पोस्ट लिख रहा है. खैर मुहल्ले के नये नये जवान हुए लड़के-लड़कियों पर ये मौसम भारी पड़ता है. आंख आ गई जबकि उम्र दिल आने की है. वैसे दिल आने के लिये उम्र की कोई बाधा क़तई नहीं होती बस इत्ता खयाल रखना चाहिये कि  कोई क़यामत शयामत न आ जाए. वर्ना बुढ़ापे में इश्क़ ....आशिक़ का  ज़नाज़ा .. आसान समीकरण होते हैं. बहरहाल दास्तान-ए-लैला मज़नूं के मज़नूं की मानिंद एक किरदार पूरे होशो-हवास में अपनी माशूक़ के दरवाज़े खड़ा खड़ा पन्नों पे लिख लिख के बारास्ता खिड़की खत भेज रिया था कि झरोखे से एक खत ठीक वैसे ही मियां मज़नूं के आगे गिरा. ज़नाब चिहुंके खत उठाया बांच ही रहे थे कि तड़ाक से एक वार तशरीफ़ पर पड़ा इकन्नी छाप मजनूं मुंह के बल औंधे जा गिरे. खत में माशूका ने लिखा था :-”बन्टी भाग आज़ पापा का हाफ़ डे है.” दर असल बन्टी मियां को आई फ़्लू था किंतु आई लव यू कहना भी उतना ही ज़रूरी था बंटी उर्फ़ इकन्नी छाप मजनूं को भाई वो इश्क ,इश्क क्या जो बैठे बिठाए जन्नत न दिखाए. ...
इधर एक दफ़्तर में साब को अपने सारे मातहत कामचोर नज़र आते थे . साहब के  कर्मचारी मंटू भाई बड़े शातिर थे सोचा स्साले साहब की वाट लगाने का उम्दा मौका है सो पहुंच गये बिना आंख आए काला चश्मा लगाए. साहब के कमरे में बोले:-सर, ये फ़ाईल में ज़रा........?
साहब बहादुर ने ज्यों चश्माधारी को देखा बोले अरे कमरे में चश्मा... तमीज़ भूल गये हो क्या हीरो गर्दी सवार है सर पे...?
”न सर जी आखें आईं हैं मेरी ”
साहब फ़ौरन बोले भाइ ज़ल्द कमरे से जाओ, रुको मत तुम्हारी छुट्टी बिदाउट एप्लिकेशन जाओ..
मंटू:-सर, फ़िर ये काम कौन करेगा...?
अरे काम वाम को मारो गोली भागो इधर से...
      मियां मंटू भाग लिये. पांच दिन आराम से ससुराल की यात्रा भी कर आये सालियों से नैन मटक्के के दौरान एक साली का आई फ़्लू जीजू की आंख में शिफ़्ट हो गया. अब घर वापसी हुई दूसरे दिन वही हाल दफ़्तर जाना ज़रूरी था सो गये. वही काला चश्मा फ़र्क ये था कि अब वाक़ई आंख आ चुकी थी . साहब को इस बार लगा कि शायद मंटू झूठ बोल रहा है सो कमरे में बुलाया :- अरे, क्या दस दिन लगेंगे चश्मा उतारो काम करो बहाना मत करो ?
बस, भरी पूरी आंख खोल दी साहब बहादुर के सामने और लगा घूरने .. साहब की हालत पतली दाल से भी पतली हो गई. झट जाने क्या हुआ.....  मंटू को छुट्टी देते हुए घिघियाने लगे बोले भाई मुझे माफ़ करना मैने तुम पर एतबार नहीं किया.
दूसरे दिन बड़े बाबू से फ़ोन पर पूछा कि साहब के क्या हाल है..?
बड़ा बाबू:- तीन दिन की छुट्टी की दर्ख्वास्त आ गई है खुश हो न ...?

रविवार, 12 सितंबर 2010

अमर प्रेम कथाओं को सामाजिक स्वीकृति मिलने की वज़ह

राधा-कृष्ण, शकुंतला-दुष्यंत, सावित्री-सत्यवान,रानी रूपमती-बाज बहादुर, सलीम-अनारकली, हीर-रांझा, लैला-मजनूं, सोहनी-महिवाल, ढोला-मारू की अमर प्रेम कहानियां समाज को सहज स्वीकार्य ही नहीं वरन इनका अनुगायन सतत जारी है एक सलीम और अनारकली को छोड़ कर. क्या खास था इन कथाओं में मुझे सच यक़ीन नहीं होता यदि इसका दुहराव अब होता है तो उसे कम से कम भारतीय समाज स्वीकार्य नहीं करता न ही उसे प्रतिष्ठा मिलती जैसा कि इन नायकों-नायिकाऒं को मिली है. क्या वज़ह है कि उनको इतना यश और प्रतिष्ठा दौनों ही हासिल हुई. है . यानी सामाजिक स्वीकारोक्ति के पीछे का रहस्य क्या था. सामान्यत: कि इसका प्रधान चरित्र या तो   राजा था या कि उसकी सामाजिक क्षमता इतनी प्रभाव शाली थी की रसूख़दार आशिक़ के किसी भी काम को नकारना किसी आम आदमी के बस की बात न थी इन प्रेम कथाओं को कवियों के सहारे जन जन तक पहुंचाई गई. 
दूसरी ओर  लैला-मजनूं और हीर-रांझा के नायकों अस्तित्व बेहद-सामान्य होने के बावज़ूद उनको आज़ तक याद किया जा रहा है इसका आधार जैसा कि मुझे प्रतीत होता है - कथानक की पृष्ठभूमि पर गड़ीं लोकरंजक प्रस्तुतियां जो ततसमकालीन कवियों कथाकारों कलाकारों ने नायक नायिका के प्रति पाज़िटिव रवैया अपना कर पेश की गईं थीं.  इन कथानकों को सभी भाषाई साहित्यकारों कलाकारों कवियों ने जीवित रखा. उदाहरण के तौर पर देखिये  :-        
 रांझा रांझा करदी नी मैं आपे रांझा होई ! रांझा मैं विच , मैं रांझे विच , होर ख्याल ना कोई !!! " बुल्लेशाह...... ऐसे अनगिनत उदाहरण हैं जिन से यह साबित होता है कि साहित्य-कला के ज़रिये समाज में प्रेम को स्प्रीचुअली स्वीकारोक्ति हासिल हुई. जबकि आज़ के दौर से अपेक्षा थी कि लोग कुछ ज़्यादा ज़हीन होंगे किंतु आनर-किलिंग के दौर में न तो  साहित्य की चलती और न ही कला की. सामाजिक न्याय सूत्रों को तक न तो स्वीकारा जा रहा है और न ही समझा जा रहा है.

शनिवार, 11 सितंबर 2010

ये इश्क इश्क है

एक मुक़म्मल कव्वाली जो सूफ़ी दर्शन की झलक देती है

ईद कुछ यूं भी मनाई कई होगी

गुजरात का गरबा वैश्विक हो गया

  जबलपुर   का   गरबा   फोटो   अरविंद   यादव   जबलपुर जबलपुर   का   गरबा   फोटो   अरविंद   यादव   जबलपुर गुजरात   के व्यापारियो...